इस किस्से की शुरूआत भी तब ही से हो चुकी थी जब भगवान राम का जन्म हुआ. फिर सीता स्वंयवर हुआ. राम जी सीताजी के साथ अयोध्या आए. जैसे नियती में हर चीज का वक्त निश्चित है. कब क्या होना है. कैसे होना है. हर घटना का तरीका निश्चित है. उसी तरह ये किस्सा भी निश्चित सा ही था. दिवाली सबसे पहले मनाने या दीपों के इस पर्व के शुभारंभ का श्रेय भले ही अयोध्या के पास हो लेकिन दीपदान का श्रेय अयोध्या नहीं ले सकती. ये तो किसी और नगर ने पहले ही अपने नाम कर लिया है.
रामजी के युग का अयोध्या बेहद विशाल और विराट नगर. जहां सुख का सूरज सदा उदय रहता था. लेकिन दुख तो उस दिन आया जब राजा दशरथ की एक रानी कैकय अपनी जिद पर अड़ गईं. यकीनन उनकी इस जिद को मजबूत आधार दिया था मंथरा ने. पर ये भी कहां गलत था कि कैकेय चाहतीं तो अपने विवेक का उपयोग करतीं और आने वाले वक्त की बाधाएं दूर कर देतीं. पर ऐसा नहीं हुआ. होना था भी नहीं. क्योंकि कैकेय खुद एक निमत्त मात्र थीं. उस लक्ष्य का जिसे पूरा करने के लिए भगवान विष्णु ने राम का अवतार लिया था. और उनकी अर्धांगिनी लक्ष्मी माता सीता के रूप में धरती की कोख से अवतरित हुई थीं.
तो वापस कैकेय पर आते हैं. ये इतिहास सब जानते हैं नाराज कैकेय को मनाने के लिए महाराजा दशरथ ने वो दो वरदान भी दे दिए जो कभी नहीं देने थे. भरत को अयोध्या का साम्राज्य और राम को चौदह बरस का वनवास. राजा दशरथ ने प्राण गंवा दिए लेकिन रघुकुल की रीत निभाई. रघुकुल रीत सदा चली आई प्राण जाई पर वचन न जाई. सांसों में रचा बसा ये कुल का मंत्र उनके प्राणों पर संकट ले आया. प्रजा से प्रिय राम छिन गए. लेकिन दशरथ ने कुल की परंपरा कमजोर नहीं पड़ने दी. राम राम कहते कहते प्राणों का त्याग कर दिया. और राम ने भी इस परंपरा को उसी इच्छाशक्ति से निभाया.
जानते थे कि वन में खतरे बहुत हैं. साथ में सुकोमल सीता माता हैं. कभी भी थक जाएंगी. कभी भी रूक जाएंगी. लेकिन जिदद् की वो भी पक्की ही थीं. अपने पति का हाथ थाम कर वन को निकली तो जैसे मार्ग में बिखरे पत्थरों को ही फूल मान लिया. पैरों के छालों को मखमल का अहसास मान लिया. कुटिया की सख्त जमीन को ही राजसी बिछौना मान लिया. और लक्ष्मण . उनके लिए तो सिर्फ भईया का आदेश ही सर्वोपरी था. जो भईया कहते गए लक्ष्मण करते गए. वनवास का एक एक दिन कटता चला गया. कभी रिषी मुनियों के सांनिध्य में तो कभी वन में भटकते हुए.
लेकिन वनवास के वो चौदह साल कटना इतना आसान नहीं था. गुजरते गुजरते वक्त ने ऐसा समय दिखाया कि आखिरी का एक साल बिताना मुश्किल हो गया. राम तो खैर भगवान थे सब जानते थे. सीता और लक्ष्मण भी अनजान न थे. अवतार जिस प्रयोजन से धरा है उसे पूरा तो करना ही था. सो रावण के हाथों सीता ने अपना हरण होने दिया. सीता नहीं मानेंगी लक्ष्मण रेखा लाघेंगी. ये जानते हुए भी लक्ष्मण ने रेखा खींची. शायद एक आखिरी कोशिश या आखिरी मौका दिया होगा या रावण को कि वो अपने प्राण बचा ले और दुष्कर्तय् से बच जाए. या सीता को कि वो रावण की कैद में जाने से बच जाए. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ.
साधु के भेष में आया सीता का हरण किया और लंका लौट गया. राम और लक्ष्मण सीता की खोज में निकले. रास्ते में मुलाकात हनुमान, सुग्रीव और जामवंत से हुई. लंका विजय की रणनीति बनी और राम ने वानर सेना के साथ लंका पर आक्रमण कर दिया. कहते हैं पाप का घड़ा जल्दी भरता है. रावण के परिपेक्ष्य में देखें तो घड़े में अमृत पहले से ही था लेकिन पाप इतना बढ़ा कि अमृत भी मेला हो गया. युद्ध का परिणाम सब जानते हैं रावण को राम के हाथों मृत्यु प्राप्त हुई. जिस अमृत ने अमर करने का वादा किया था वही सबसे पहले चकनाचूर हुआ और जीवन की हर आस मिटा गया.
अग्निपरीक्षा के बाद राम ने फिर सीता का वरण किया. समय कम था दोनों भाइयों ने अयोध्या की ओर प्रवास किया. दिवाली की बेला भी उसी क्षण के साथ शुरू हो गई थी. जब अयोध्या को ये संदेश मिला कि भगवान राम सीता और लक्ष्मण के साथ वापस लौट रहे हैं. अयोध्यावासियों में खुशी इतनी थी कि इंतजार की घड़ियां कटना मुश्किल हो रहा था. तो तय हुआ कि अयोध्यावासी उस दिशा में चलना शुरू करेंग जिस दिशा से रामजी वापस आ रहे हैं. हर कदम के साथ फासला घट रहा था. भगवान राम अयोध्या पहुंच सकें उससे पहले ही प्रजा की अपने प्रिय राजा से मुलाकात सुल्तानपुर में हुई. अब दिवाली तो वहीं होती है जहां भगवान से भेंट हो जाए.
इसी सुल्तानपुर में एक स्थान था. आज भी है. नाम है दियरा. गोमती नदी के किनारे बसे इस स्थल पर राजा और प्रजा का अद्भुत मेल हुए. रामजी ने अपनी प्रजा के साथ गोमती नदी में पहली बार दीपदान किया. वो दिन दिवाली का नहीं था. लेकिन दीपदान की परंपरा यहां से शुरू हो चुकी थी.