इस रात की सुबह नहीं. 1996 में आई सुधीर मिश्रा की इस सस्पेंस थ्रीलर मूवी को ढेरों तारीफें मिलीं. सस्पेंस मूवी थी. 120 मिनट बाद रात से पर्दाफाश होना ही था. पर इस फिल्म के रिलीज होने से बारह साल पहले जो रात आई थी उसकी सुबह आज तक नहीं हो सकी है. ये रात आई थी भोपाल में. साल था 1984. 2 दिसंबर की देर रात से शुरू हुआ गहरी काली रात का सिलसिला फिर तीन दिसंबर आया. फिर दो दिसंबर 1985 आया फिर 1986. 2006, 2016 और अब 2020 आने को है. साल आते जा रहे हैं. गुजरते जा रहे हैं. लेकिन वो रात है कि गुजरने का नाम ही नहीं लेती. साढ़े तीन दशक से ज्यादा लंबा अंधेरा. साढ़े तीन दशक से ज्यादा लंबी जहरीली यादें. तीन तो क्या दस दशक भी बीत जाएंगे लेकिन भोपाल के लिए ये रात कभी नहीं गुजरेगी. इस रात की कालिख को मापना हो तो कभी भरी दोपहरी में ही यूनियन कार्बाइड के सामने स्थित जयप्रकाश नगर में घूम आईए. जब इस मोहल्ले के सामने पहुंचेंगे तो पुराना कार्बाइड कारखाना आपको सीधे उस दिन पर ही ले जाएगा जिस दिन जहरीली गैस रिसी थी. और जरा जो पलटेंगे तो ये पुराना स्मारक बना नजर आएगा. एक औरत. हाथ में बच्चा और चेहरे पर रखा हुआ एक हाथ. चेहरा कहीं दिखाई नहीं देता उसके बाद भी गैस त्रासदी का दर्द बयां कर जाता है ये स्मारक. उतना ही उजाड़. पुराना औऱ अनदेखा. जैसे अब इस बस्ती में रहने वाले गैस पीड़ित हो चुके हैं. जिनकी सुध लेना भी अब कोई जरूरी नहीं समझता. जितना मिलना था मुआवजा उतना मिल चुका. जो राहत दी जानी चाहिए थी. उसे काफी मान कर मुंह फेरा जा चुका है. अब इस बस्ती के पास जो है वो है कुछ पुरानी यादें, और कुछ ताजा जख्म. यहां किसी मासूम पर ही नजर डाल लीजिए. जिसका जन्म गैस त्रासदी के दस साल या बीस साल या चार पांच साल पहले ही हुआ हो. जिस मासूम ने उस दिन को जिया भी नहीं. वो उस रात की वजह से हर रोज मर रहा है. जो मां गैस त्रासदी के वक्त कहीं कोसो दूर रहती थी. जिसे गैस छू कर भी नहीं गई उसकी पुश्तें भी त्रासदी की सजा भुगत रही हैं. जो लोग जहरीली गैस का शिकार हुए उनकी आने वाली नस्लें भी टीबी, कैंसर, लकवा की शिकार हो रही हैं. त्वचा से जुड़े रोग और आंखों की तकलीफें भी होना आम बात है. केवल इतना ही नहीं कई बच्चे अब भी मंदबुद्धि ही पैदा हो रहे हैं. यानि आने वाली नस्लों को जहरीली गैस का दंश तीन दशक बाद भी भुगतना पड़ रहा है. और आने वाले कुछ और दशकों तक भुगतना पड़ सकता है.