रावण वध के बाद अयोध्या नहीं पहले इस स्थान पर गए श्रीराम

उनके लिए वो हर पल कीमती था. हर घड़ी को जाया होने से बचाना था. क्योंकि उस भक्त की शर्त ही कुछ ऐसी थी. ये भक्ते पूरे चौदह साल करता रहा भगवान राम का इंतजार. राम ने तो इसलिए घर छोड़ा क्योंकि पिता का वचन था. लेकिन ये भक्त तो इसलिए वनवास भोग रहा था क्योंकि उसके प्रभू कष्ट में जीवन बिता रहे थे. राम सीता ने तो सिर्फ एक वर्ष का वियोग झेला. वो भी इसलिए क्योंकि रावण ने कर लिया था सीता का हरण. लेकिन ये भक्त पूरे चौदह वर्षों तक वियोग झेलता रहा. अपनी पत्नी का, अपनी मां का अपने पूरे परिवार का. किसी का दबाव नहीं था. न ही किसी वचन को निभाने की जिम्मेदारी थी. न कोई कर्तव्य पूरा करने का बोझ. इसके बाद भी इस भक्त ने पूरे चौदह बरस तक झेला वनवास. ये भक्त कोई और नहीं भगवान राम के भाई भरत थे. वो भरत जिन्हें जन्म दिया था माता कैकेय ने. वो माता कैकेय जिन्होंने वनवास चुना था राम के लिए. वो कैकेय जो मंथरा की वजह से सही गलत का फर्क भूल बैठी थीं. अपने बेटे को सिंहासन पर बैठे देखना चाहती थी. वही माता कैकेय अपने ही फैसले पर पछता रही थीं. क्योंकि जिस पुत्र को सम्राट बनान चाहती थीं. जिसकी किस्मत में खुशियां, ऐशो आराम, राजपाठ और सत्ता लिख देना चाहती थीं. वही पुत्र ये सब ठुकरा देना चाहता था.  माता कैकेय तो शायद ये कभी समझ ही नहीं सकीं कि भरत का सुख सिंहासन में नहीं अपने ज्येष्ठ भ्राता के आशीष में है. जो जान जाती तो शायद कभी राम के लिए वनवास न चुनती. पर नियती को मंजूर यही था. राम के वनवास जाने पर कैकेय जिसे अपनी जीत समझ रही थीं वो दंभ पलभर में चकनाचूर हो गया. जब बेटे ने मां के फैसले पर नाराजगी जताई और भाई के साथ वन में रहने का फैसला सुना दिया. उस वक्त शायद कैकेय को कौशल्या के दुख का अहसास हुआ होगा. लेकिन तब तक देर बहुत हो चुकी थी. राम अयोध्या से बहुत दूर निकल चुके थे. लेकिन भरत भी तो जिद के पक्के थे. जब राम को वनवास मिला तब भरत अयोध्या में नहीं थे. शत्रुघ्न के साथ अपने नाना के घर गए थे. ये भी एक षड्यंत्र ही तो था. राम और भरत को एक दूसरे से जुदा करने के लिए मंथरा के कहने पर चली गई कैकेय की एक चाल. भरत अगर ये जानते की उन्हें नाना के पास भेज कर मां क्या करने वाली है तो शायद ननिहाल का मोह ही नहीं पालते. और अगर अयोध्या में होते तो कौन जाने कि या तो राम को वनवास न मिलता या फिर भरत भी उस वनवास का हिस्सा होते, लक्ष्मण की तरह. जब नाना के घर से लौटे भरत तो सबसे पहले अपने भाई राम से ही मिलना चाहते थे. लेकिन राम तो वहां थे ही नहीं. वो तो वनगमन कर चुके थे. पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ. भरत ने एक पल न सोचा. न सिंहासन का लोभ किया न मां की ममता से मजबूर हुए. वन जाने को आतुर भरत अकेले ही निकल पड़े. बहुत समझाइश हुई. कौशल्या, कैकेय सुमित्रा सब बस एक ही बात समझाते रहे कि रूको साथ चलेंगे. कैकेय से रुष्ट थे, कौशल्या की समझाइश काम आई. भरत मान गए. अगले दिन सुबह दल बल के साथ निकले वहां जाने के लिए जहां राम ने कुटिया बनाई थी. समाचार मिला कि राम सीता और लक्ष्मण चित्रकूट में है. बस भरत अपनी तीनों माताओं और सेना के साथ चित्रकूट के लिए रवाना हुए. दूत ने राम तक संदेश पहुंचाया कि भरत आ रहे हैं. संग तीनों माताएं और सेना भी हैं. राम धीर गंभीर थे भरत के स्नेह को जानते थे. लेकिन लक्ष्मण. लक्ष्मण में वो धीरज कहां था. क्रोधी लक्ष्मण इस समाचार में मुस्कुरा भी न सके. भरत की नीयत पर ही संदेह कर बैठे. और गुस्से में गरजते हुए कहा जैसी मां वैसा पुत्र. लक्ष्मण को लगा कि वनवास के बाद अब भरत उनके प्राण लेने आ रहे हैं. शायद सेना इसलिए लाए हैं. गुस्से में भड़के कि मेरे होते हुए भैया को कोई छू भी नहीं सकता. लेकिन राम तनिक भी विचलित न थे. जानते थे कि साथ में चाहें लाखों सैनिक हों लेकिन भरत का एक दिल तो उन पर ही न्यौछावर है. इसलिए लक्ष्मण को भी शांत किया. धीरज का पाठ पढ़ाया. लक्ष्मण मान गए. उधर भ्राता से मिलने की खुशी इतनी थी कि भरत सेना में सबसे आगे चल रहे थे. पैरों पर तो जैसे कोई अंकुश था ही नहीं. इतने लंबे डग भर लेना चाहते थे कि बस चार कदम में ही भाई के पास पहुंच जाए. खैस बिछोह का वो वक्त भी बीता. राम के दर्शन हुए. आलिंगन तो दूर, ग्लानि का भाव इस कदर था कि भाई के चरणों में गिर पड़े. जैसे अपने आंसुओं से ही चरण वंदना कर माता का पाप धो देना चाहते हैं. भ्रात प्रेम का अनुपम दृश्य था वो. जिसे देखकर लक्ष्मण को भी अहसास हुआ कि कितना गलत थे वो. अपने भाई को समझने में भूल की. हर ग्लानि को आंसुओं ने धो दिया. गिले शिकवे दूर हुए उसके बाद रामजी को पिता की मृत्यु का समाचार मिला. तो पूरी विधि विधान से तर्पण किया. जब कार्य पूरे हुए तो भरत ने भाई से घर लौट चलने का आग्रह किया लेकिन राम तो दृढ़ निश्चय कर चुके थे. पिता के अंतिम वचन को अधूरा कैसे छोड़ देते. इधर भरत भी जिद के पक्के थे. राम नहीं झुके और भरत नहीं माने. कह दिया कि राजपाट तो बड़े भाई का ही है. जब तक वो न आएं उनकी चरण पादुकाएं गद्दी पर विराजेंगी. और वो खुद भाई की तरह वनवासी बने रहेंगे. साथ में ऐसी शर्त भी रख दी जिसे पूरा करना राम के लिए भी चुनौती ही था. कहा चौदह वर्ष पूरे होने के बाद वो एक पल का भी इंतजार नहीं करेंगे अगर राम न मिले तो वो अपने प्राण त्याग देंगे. क्या मालूम उस वक्त कैकेय पर क्या बीती होगी. भाइयों के इस प्रेम को पहले समझ ही कहां पाई थी वो. जिसके लिए इतने प्रपंच किए वही बेटा राजपाट छोड़ वन में रहेगा. ठीक वैसे ही जैसी उसने राम के लिए कामना की थी. धीरे धीरे साल बीतते रहे. नित नए घटनाक्रम होते रहे. सीता का हरण हुआ. रावण का वध हुआ. लंका विजय कर राम जी अयोध्या के लिए निकले. डर ये था कि चौदह साल पूरे होने के बाद अयोध्यावासी तो थोड़ा इंतजार कर लेंगे पर भरत न करेंगे. इसलिए अयोध्या न जाकर पहले नंदी ग्राम गए.

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