बल में एक दौर ऐसा भी था जब मोहर सिंह का नाम लिया जाता और चंबल के बीहड़ कांपने लगते. एक नाबालिग लड़का जिसे डकैतों ने देखते ही लौट जाने को कहा. गुस्सा इतना आया कि छोटी सी उम्र में ही 150 डाकुओं का गिरोह तैयार कर खुद सरगना बन गया. और शुरू कर दिए रूह कंपकपा देने वाले अपराध. लोगों की जान लेना जैसे बाएं हाथ का खेल था. और अपहरण तो आम बात. तभी तो सिर पर 400 हत्याओं का दोष था और कुल 650 अपहरणल का भी. 400 में से दो हत्याएं तो अपनी बीवी और बेटी की ही थी. जिनका सिर धड़ से केवल इसलिए अलग कर दिया कि चरित्र पर शंका थी. यकीन होने से पहले ही दोनों की जान ले ली. आठ साल जेल में बिताने वाले मोहर ने एक बार अपने इंटरव्यू में कहा था कि मुझे इस बात का कोई अफसोस नहीं कि मैंने चंबल के बीहड़ों में बहुत बंदूक चलाई है.
यूं तो चंबल के डकैतों पर खूब फिल्में बनीं पर मोहन उन डाकुओं में से थे जिन्होंने खुद फिल्मों में अपना किरदार अदा किया. 1982 में आई फिल्म चंबल के डाकू में मोहर सिंह ने अपना भाई माधौसिंह के साथ एक्टिंग भी की. 1958 में अपना गिरोह बनाने वाले मोहर सिंह पर उस वक्त 2 लाख रूपए का इनाम था. और उनकी गैंग पर 12 लाख रूपये का जो उस वक्त के हिसाब से सबसे बड़ी रकम थी. पुलिस और मुखबिरों को अपनी गोलियों से भून देने वाले मोहर न 1972 में सरेंडर किया. तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाशचंद्र सेठी के कहने पर मोहर ने सरेंडर किया. और उसके बाद पूरा जीवन समाजसेवा में बिताया. कई गरीब लड़कियों की शादी करवाई और अंत तक पूजा पाठ, भजन कीर्तन में डूबे रहे. 1960 से लेकर 70 के दशक में दस्यू सम्राट के नाम से फेमस मोहर आत्मसमर्पण के बाद डकैत नाम से भी चिढ़ते थे. भिंड स्थित मोहगांव कस्बे के लोग उन्हें मोहर दद्दा कह कर बुलाते रहे हैं. 92 साल की उम्र में लंबी बीमारी के बाद मोहर दद्दा ने इसी कस्बे में अंतिम सांस ली.