बिहार में चुनाव सिर पर हैं. लेकिन नीतीश कुमार की जीत तकरीबन तय मानी जा रही है. वैसे भी नीतीश सियासत के ऐसे चालाक सिपाही हैं जो खूब जानते हैं जनता की नब्ज को पकड़ना और मौके की नजाकत को भांप कर चाल चलना. फिलहाल नीतीश ये समझ चुके हैं कि हिंदुत्व को पूरी तरह से अनदेखा नहीं कर सकते. लिहाजा कई मामलों पर एनडीए के बोल ही बोल रहे हैं. और ये भी जानते हैं कि मुस्लिम वोटर को दरकिनार करके चुनाव जीता नहीं जा सकता. इसलिए सीएए, एनपीआर पर वो कहा जो लोग सुनना चाहते हैं. इस तरह बिहार की सियासत को साधते हुए नीतीश को पूरे पंद्रह साल हो चुके हैं. एक बार एनडीए से तकरार कर चुके हैं लेकिन बाद में ये समझते देर नहीं लगी कि मोदी एंड पार्टी से ठन कर नहीं चला जा सकता. पर इस बार बारी मोदी सरकार की है. जिसे इस बार चुनाव से पहले ये समझना होगा कि बिहार में जीतना है तो नीतीश को ही गुरू मानकर शीष नवाने हैं. क्योंकि डेढ़ दशक में नीतीश इस लायक हो चुके हैं कि कम से कम बिहार में वो अपनी शर्तों पर सरकार बना सकते हैं और चला भी सकते हैं. वैसे भी बीजेपी जो गलती दूसरे प्रदेशों में दोहरा चुकी है वो यहां नहीं दोहराना चाहेगी. अपने गठबंधन वाले दलों से उलझकर बीजेपी बिहार को नहीं खोना चाहेगी. यानि इस बार नीतीश की शर्तों पर चलना बीजेपी की इच्छा हो न हो लेकिन इसके सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं होगा.