6 दिसंबर 1992 को जो कुछ हुआ वो दोहराना जरूरी नहीं है. जरूरी है तो अब ये जानना कि उसके बाद क्या हुआ. देश पर क्या कुछ गुजरी ये भी अब बताने वाली बात नहीं है. जिन्हें 1992 याद है उन्हें वो सब कुछ याद है कि उस वक्त कितने ही प्रदेश बुरे हालात से गुजरे. कोलकाता हो या मुम्बई हर शहर लहुलुहान था. जिसे रोकने का सिर्फ एक ही तरीका था कर्फ्यू. कहीं कर्फ्यू नहीं था तो वो बस एक ही जगह थी सियासी गलियारे. जहां नेताओं के दीमाग तेजी से चल रहे थे. आपस में जूझ रहे थे. ये गुत्थमगुत्थी इसलिए थी ताकि दोषियों को सजा दिलवाई जा सके. पर ऐसा हो कैसे सकता था. छींटे हर सियासी दल पर बराबरी से उड़े थे. बीजेपी के अटल आडवाणी कटघरे में थे तो तत्कालीन प्रधानमंत्री और कांग्रेस नेता नरसिम्हाराव भी दोषी ही माने जा रहे थे. मामला पेंचिदा था. तो हल ऐसा ढूंढा गया कि हर सिरे को आराम से सुलझाने का मौका मिले.
लिहाजा घटना के दस दिन बाद यानि सोलह दिसंबर 1992 को एक आयोग का घटन हुआ. इस एक सदस्यीय आयोग का नाम था लिब्रहान आयोग. आयोग को अपनी रिपोर्ट तीन महीने के भीतर पेश करनी थी, लेकिन इसका कार्यकाल लगातार 48 बार बढ़ाया गया. करीब 17 वर्ष के लंबे अंतराल के बाद अंततः आयोग ने 30 जून 2009 को अपनी रिपोर्ट तत्काालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंपी थी. लिब्राहन आयोग की इस रिपोर्ट को 24 नवंबर 2009 को संसद में पेश किया गया था. इसमें बाबरी विध्वंस को सुनियोजित साजिश करार देते हुए आरएसएस और कुछ अन्यय संगठनों की भूमिका पर सवाल उठाए गए थे. इसके अलावा उत्तर प्रदेश के तत्कानलीन मुख्योमंत्री की भूमिका पर भी आयोग ने सवाल उठाए थे.
आयोग ने अपनी रिपोर्ट में जिन 68 लोगों को दोषी ठहराया था, उनमें पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह, शिव सेना के अध्यक्ष बाल ठाकरे, विश्व हिन्दू परिषद के नेता अशोक सिंघल, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पूर्व सरसंघचालक के एस सुदर्शन, के एन गोविंदाचार्य, विनय कटियार, उमा भारती, साध्वी ऋतम्भरा और प्रवीण तोगड़िया के नाम भी शामिल थे. इस रिपोर्ट में तत्का,लीन मुख्यमंत्री कल्या ण सिंह पर उन्हेंी घटना का मूकदर्शक बताते हुए आयोग ने तीखी टिप्प णी की थी. आयोग का कहना था कि कल्याेण सिंह ने इस घटना को रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाया और आरएसएस को अतिरिक्त संवैधानिक अधिकार दे दिए. वैसे कल्याण सिंह इस मामले के आखिरी गवाह थे जिनकी सुनवाई सबसे आखिरी में साल 2005 में हुई
लिब्रहान आयोग देश में अब तक का सबसे लंबा चलने वाला जांच आयोग है. इस पर सरकार को करीब आठ करोड़ रुपये का खर्च वहन करना पड़ा था. इस तरह ये भारत के इतिहास में सबसे अधिक अवधि वाला जांच आयोग साबित हुआ. लिब्रहान आयोग को 16 मार्च 1993 तक अपनी रिपोर्ट सौंपनी थी लेकिन उसके बाद लगातार इसकी अवधि बढ़ाई जाती रही.
हर बार जब भी लिब्रहान आयोग का कार्यकाल बढ़ा. इसे लेकर विवाद हुआ. लेकिन नरसिंहराव के बाद हर सरकार ने आयोग के कार्यकाल को बढ़ाया. वर्ष 2007 में आयोग के बार-बार बढ़ते कार्यकाल को लेकर इतना विवाद बढ़ गया कि सरकार को सदन में कहना पड़ा कि अब किसी भी हालत में आयोग का कार्यकाल नहीं बढ़ाया जायेगा. लेकिन उसी साल आयोग को पांच बार विस्तार दिया गया जिसमें एक बार ये विस्तार महज एक महीने के लिए दिया गया था.
2008 में आयोग का कार्यकाल दो बार और 2009 में भी दो बार बढ़ाया गया. जस्टिस लिब्रहान आयोग पर तरह-तरह से और भी आरोप लगे. आयोग के साथ दस साल तक जुड़े रहने के बाद आयोग के वकील अनुपम गुप्ता ने ये कहते हुए इससे किनारा कर लिया कि जस्टिस लिब्रहान लालकृष्ण आडवाणी के प्रति कुछ ज्यादा ही साफ्ट हैं. जस्टिस लिब्रहान ने समय-समय पर ये कहा कि कुछ बड़े नेता आयोग को मदद नहीं कर रहे हैं. इसलिए उन्हें दिक्कत पेश आ रही है.
वहीं बीजेपी के नेता समय-समय पर ये आरोप लगाते रहे हैं कि लिब्रहान आयोग का इस्तेमाल कांग्रेस अपने तरीके से अपने हितों के लिए कर रही है.
जस्टिस लिब्रहान ने 13 पन्ने की एक्शन टेकन रिपोर्ट पेश की थी. जिसमें कहा गया कि सांप्रदायिक हिंसा रोकने के लिए एक सख्त कानून बनना चाहिए. लेकिन आरोपियों की सूची में जिन 68 लोगों के नाम हैं, उनमें से किसी के खिलाफ कोई गंभीर कार्रवाई करने की बात इस एक्शन टेकन रिपोर्ट में नहीं की गई. इससे ये पूरी तरह साफ गया कि बाबरी मस्जिद ढहने के वर्षों बाद भी गुनहगारों को कोई सजा नहीं होगी.
गौरतलब है कि लिब्रहान आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में दोषियों को सजा की सिफारिश नहीं की थी. इसके अलावा, एटीआर में कहा गया कि चुनाव आयोग को राजनीति में धर्म के इस्तेमाल की खबर मिलते ही कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए. जो लोग सरकारी पदों पर है उनको धार्मिक संस्थाओं में किसी भी तरह का पद न दिए जाने की बात कही गई. रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया कि नेताओं, पुलिस और नौकरशाहों की मिलीभगत न होने दी जाए. सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी नौकरशाहों को लाभ के पदों पर आसीन नहीं किया जाए. किसी खास राजनीतिक और धार्मिक विचारधारा रखने वाले लोगों को सरकारी नौकरी देने से बचा जाए.